बुधवार, 16 अक्तूबर 2013


क्षण भर की पहचान जगत् में जीने का सामान दे गई

पहले भी पथ था , पंथी थे ,
 पर पथ  से अनुरक्ति नहीं थी,
बिना तुम्हारे इस जीवन में,
नेह न था  आसक्ति नहीं थी,
तुम क्या मिले की अनजाने ही,
मिलन विरह का ज्ञान मिल गया,
जियूं किसी के लिए या मिटूं ,
गौरव मिला गुमान मिल गया,
सहसा फूट पड़ी मानस में,
 जो सरिताएं रुद्ध रही है,
और बहुत  सी बातें हैं,
भाषा में जिनके शब्द नहीं हैं,
पाने की अभिलाषा स्वयं को,
 खोने का वरदान दे गयी,
क्षण भर की पहचान जगत  में
जीने का सामान दे गयी।


दीपक सहज ज्योति जन-जन में,
मिलना कहीं स्नेह की बाटी,
स्वर्ग सुलभ हो सकता है,
पर पण कठिन रह का सह,
जो दे ऐसी शक्ति की,
पग-पग अदि अनंत की सीमा नपे,
जिसकी चाय में शूलों का भय,
फूलों का मोह न व्यापे,
बिना तुम्हारे दुर्बल मिटटी की,
महिमा उद्वत न होती,
जीवन मरण सतत परिवारं,
की सार्थकता सिद्ध न होती,
पग की परहम रुझान,
पंथ में मिटने का अरमान दे गयी,
क्षण भर की पहचान जगत में,
 जीने का सामान दे गयी।

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