बुधवार, 18 जुलाई 2012

कैफ़ी आज़मी



जिन्दगी नाम है खुशलम्हो का,
और उनमें  भी वो ही एक लम्हा,
जिसमें दो बोलती आँखे,
चाय की प्याली से जब उठें तो ,
दिल में डूबें ,
डूब के दिल में कहें,
आज तुम कुछ न कहो,
आज मैं कुछ न कहूं 
 बस यूँ ही बैठे रहें ,
हाथ में हाथ लिए,
गम की सौगात लिए,
ग़रमि-ए-जज़्बात  लिए,
कौन जाने इसी लम्हे में ,
दूर परबत  पे कहीं,
बर्फ़  पिघलने ही लगे।



फिर तुम्हे लिख दूं धरा के ताल पर,
फिर तुम्हे रच दूं गगन के भाल पर,
हो गए मुझको बहुत से दिन तुम्हारी छवि संवारे,
जहर गए कितने धरा के फूल नभ के नील आरे।....


देख ली है चांदनी,
कैसा लगा संसार बोलो ,
धूल के इस फूल को ,
 अब कर रहे हो प्यार बोलो,
प्रेमी किसी नाम है,
अनुराग भी कुछ कम है,
तीन दिन की जिन्दगी,
जगत  गए दिन चार बोलो।

मंगलवार, 17 जुलाई 2012


संकट  में यदि मुस्का न सको,
 भय से क़तर हो मत रोओ ,
यदि फूल नहीं बो  सके तो ,
कांटे कम से कम मत बोओ ,

हर सपने पर विश्वास करो,
लो लगा चांदनी का चन्दन,
मत यद् करो मत सोचो
ज्वाला में कैसे बीता जीवन,
इस दुनिया की है रीत यही,
सहता है तन, बहता है मन,
सुख की अभ्मानी मदिरा में ,
जो जाग सका  वह है चेतन 

दुनिया बेपहचानी ही रह जाती ,
यदि दर्द न होता मेरे जीवन में,
 मैं देख रही हूँ काफी अरसे से ,
दुनिया के रंग-रंगीले आँगन को,
 जिसमें हर एक ढूंढता  फिरता है,
केवल अपने अपने मन-भावन को।

मेरी पीड़ा  अनजानी ही रह जाती,
 यदि विश्व न हंसता  मेरे क्रंदन में,
सुख की ठन्डी छाया को पाकर भी,
 मैं दुःख की जलती धूप नहीं भूली,
चन्दा  की शीतल  चांदनियाँ पाकर भी,
काली  रातों का रूप नहीं भूली,
मैं रातों को भी दिन सा चमकती ,
यदि दर्द न होता मेरे जीवन में।